भारत की आजादी का जिक्र आते ही 15 अगस्त 1947 की तारीख सबसे पहले ज़ेहन में आती है। आधी रात का वो ऐतिहासिक पल, जब भारत ने ब्रिटिश राज से आजादी पाई, करोड़ों भारतीयों के लिए भावनाओं का ज्वार था। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि यह तारीख क्यों और कैसे चुनी गई? क्या इसके पीछे कोई लंबी योजना थी, या फिर यह अचानक हुआ फैसला था?
कहानी दिलचस्प है और थोड़ी चौंकाने वाली भी। क्योंकि यह तारीख किसी लंबे विचार-विमर्श का नतीजा नहीं थी, बल्कि सिर्फ 5 सेकेंड में तय हुई थी। और इससे भी दिलचस्प बात यह है कि 1947 में सत्ता हस्तांतरण के बावजूद ब्रिटेन पूरी तरह भारत से अपना हाथ खींचना नहीं चाहता था।
आजादी का बढ़ता दबाव
1940 के दशक की शुरुआत में ही यह साफ हो गया था कि ब्रिटिश साम्राज्य भारत पर लंबे समय तक राज नहीं कर पाएगा। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद ब्रिटेन की आर्थिक स्थिति डांवाडोल थी। युद्ध में जीत के बावजूद ब्रिटेन का खजाना खाली था और जनता पर भारी करों का बोझ था।
दूसरी तरफ, भारत में आजादी की मांग पहले से कहीं ज्यादा तेज़ हो चुकी थी। 1942 का ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ ब्रिटिश प्रशासन की नींव हिला चुका था। लाखों लोग जेल गए, हजारों ने जानें दीं, और गांव-गांव में आजादी की लहर दौड़ गई।
इसी बीच, ब्रिटिश सरकार के सामने एक मुश्किल थी — भारत छोड़ना भी था और ऐसा तरीका अपनाना था जिससे उनके हित भी सुरक्षित रहें।
लॉर्ड माउंटबेटन का मिशन
फरवरी 1947 में लॉर्ड लुई माउंटबेटन को भारत का आखिरी वायसराय बनाकर भेजा गया। उनका काम था सत्ता हस्तांतरण की प्रक्रिया को तय करना। माउंटबेटन को ब्रिटेन ने स्पष्ट निर्देश दिए थे कि भारत छोड़ने से पहले ब्रिटिश व्यापारिक, सैन्य और राजनीतिक हितों की सुरक्षा सुनिश्चित की जाए।
माउंटबेटन जब दिल्ली पहुंचे, तो उन्होंने भारतीय नेताओं — जवाहरलाल नेहरू, महात्मा गांधी, मोहम्मद अली जिन्ना और सरदार पटेल — से मुलाकातें शुरू कीं। लेकिन देश का माहौल बेहद तनावपूर्ण था। हिंदू-मुस्लिम विभाजन की रेखा गहरी होती जा रही थी और साम्प्रदायिक दंगे भड़क रहे थे।
माउंटबेटन के सामने एक बड़ा सवाल था — सत्ता हस्तांतरण किस दिन किया जाए? ब्रिटिश कैबिनेट ने उन्हें जून 1948 तक का समय दिया था, लेकिन भारत की स्थिति इतनी बिगड़ चुकी थी कि इसे टालना संभव नहीं था।
एक बैठक में, जब उनसे पूछा गया कि वे सत्ता किस तारीख को सौंपना चाहते हैं, माउंटबेटन ने बिना किसी औपचारिक कैलेंडर जांच या खगोलीय गणना के, सिर्फ कुछ सेकेंड सोचकर कहा — “15 अगस्त 1947”।
बाद में उन्होंने बताया कि यह तारीख उन्होंने इसलिए चुनी, क्योंकि यह वही दिन था जब द्वितीय विश्व युद्ध में जापान ने मित्र देशों के सामने आत्मसमर्पण किया था (15 अगस्त 1945)। उनके लिए यह ‘विजय दिवस’ था, और वे इसे एक शुभ प्रतीक मानते थे।
यानी, हमारी आजादी की तारीख ज्योतिष, भारतीय परंपरा या नेताओं की लंबी चर्चा का परिणाम नहीं थी, बल्कि एक ब्रिटिश अधिकारी की व्यक्तिगत पसंद पर आधारित थी।
ब्रिटेन की छिपी रणनीति
हालांकि सत्ता हस्तांतरण का मतलब यह नहीं था कि ब्रिटेन भारत से पूरी तरह अलग हो गया। असल में, उनके मन में यह योजना थी कि भारत पर उनका आर्थिक और राजनीतिक प्रभाव लंबे समय तक बना रहे।
भारत ब्रिटेन के लिए कच्चे माल का बड़ा स्रोत था — कपास, चाय, मसाले, कोयला, और खासकर जूट और लोहे जैसी चीजें। स्वतंत्रता के बाद भी ब्रिटेन चाहता था कि भारत इन संसाधनों का निर्यात उन्हीं को करे। कई शुरुआती व्यापारिक समझौते इसी सोच के साथ बनाए गए।
भारत के पास उस समय दुनिया की सबसे बड़ी प्रशिक्षित सेनाओं में से एक थी। ब्रिटेन चाहता था कि कॉमनवेल्थ ढांचे के तहत भारत की सैन्य शक्ति उनके रणनीतिक हितों में योगदान देती रहे। यही कारण था कि आजादी के बाद भी भारत कॉमनवेल्थ का सदस्य बना रहा।
ब्रिटेन का इरादा था कि भारत को अंतरराष्ट्रीय राजनीति में ऐसा मार्गदर्शन मिलता रहे जिससे उनके हित सुरक्षित रहें। उदाहरण के तौर पर, विदेश नीति में कई शुरुआती फैसलों पर ब्रिटिश सलाह का असर दिखता था।
विभाजन — ब्रिटेन की जल्दीबाजी का नतीजा
तारीख जल्दी तय होने का एक बड़ा नुकसान यह हुआ कि भारत और पाकिस्तान के बीच की सीमा तय करने के लिए सर सिरिल रेडक्लिफ को सिर्फ 5 हफ्ते मिले। नतीजा — सीमाएं जल्दबाजी में खींची गईं, कई इलाकों का गलत मूल्यांकन हुआ, और लाखों लोग अपने ही घर-गांव से बेघर हो गए।
इतिहासकार मानते हैं कि अगर सत्ता हस्तांतरण की तारीख कुछ महीनों आगे होती, तो विभाजन की योजना ज्यादा व्यवस्थित हो सकती थी और हिंसा का पैमाना कम हो सकता था।
हालांकि तारीख तय करने का फैसला ब्रिटिश पक्ष से हुआ, भारतीय नेताओं ने भी इसे स्वीकार कर लिया। नेहरू और पटेल का मानना था कि स्थिति इतनी गंभीर है कि आजादी में एक दिन की भी देरी नहीं होनी चाहिए। गांधी जी विभाजन के खिलाफ थे, लेकिन वे भी हिंसा को रोकने के लिए तत्काल सत्ता हस्तांतरण के पक्ष में झुक गए।
14 अगस्त की रात से ही दिल्ली में ऐतिहासिक सत्र की तैयारियां शुरू हो गईं। ठीक आधी रात को नेहरू ने संसद में अपना प्रसिद्ध ‘ट्रिस्ट विद डेस्टिनी’ भाषण दिया — “At the stroke of the midnight hour, when the world sleeps, India will awake to life and freedom…”
लेकिन उस रात का जश्न देश के हर कोने में नहीं था। सीमा के दोनों ओर लाखों लोग हिंसा, पलायन और बिछड़ने के दर्द से गुजर रहे थे।
आजादी की तारीख का यह 5 सेकेंड का फैसला हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि इतिहास के कई बड़े मोड़ कभी-कभी बहुत ही व्यक्तिगत और तात्कालिक निर्णयों पर निर्भर होते हैं।
ब्रिटेन ने भारत को छोड़ा, लेकिन उसने सुनिश्चित किया कि उसका प्रभाव पूरी तरह खत्म न हो। अंग्रेजों की यह ‘सॉफ्ट पावर’ रणनीति आज भी अंतरराष्ट्रीय राजनीति में पढ़ाई जाती है।
📜 संदेश:
इतिहास के पन्नों को पढ़ते समय हमें सिर्फ तारीखें याद नहीं रखनी चाहिए, बल्कि उन फैसलों के पीछे के कारणों और छिपी रणनीतियों को भी समझना चाहिए। तभी हम आज को सही मायनों में समझ पाएंगे और भविष्य के लिए मजबूत रास्ता बना पाएंगे।